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Friday, March 14, 2014

गुलाल जो बिखरा था राहों में


रंग और गुलाल जो बिखरा था राहों में
आती-जाती भीड़ और उड़ता धूल का गुबार राहों में
याद करती उस दिन को जब उससे मिली थी इन्हीं राहों में
साथ चलते-चलते छूट गया था हाथ कहीं राहों में
देख रही थी वो ख्वाब जो बिखरा था राहों में
कर रही थी वो बैठी इंतजार राहों में
साथ चलेंगे फिर वे बनकर हमसफर जिंदगी की राहों में

1 comment:

  1. आपकी इस प्रस्तुति को आज कि अल्बर्ट आइंस्टीन और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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