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Saturday, May 31, 2014

धान रोपती औरत

कभी देखी है तुमने धान रोपती हुई औरत
अपने बालों को कपड़े में लपेटकर
साड़ी को घुटनों तक चढ़ाकर
वो घुस जाती है पानी में और
घंटों यूं ही उस पानी में खड़े रहकर
रोपती रहती है धान
खेत में भरे गंदे पानी से सड़ जाते हैं
उसके हाथ और पैर
कुछ जोंक भी चिपक जाती हैं उसके पैरों में
और भी कई पानी के कीड़े जो
चूसते रहते हैं उसका खून
फिर भी धान रोपती औरतें
अपने लक्ष्य से नहीं भटकतीं
और चेहरे पर मुस्कान लिए
गाती रहती हैं कजरी
इतना दर्द सहने के बाद भी
उनके चेहरे पर होती है एक खुशी
खुशी इस बात की कि उनकी रोपी हुई फसल
बड़ी होकर जब कटेगी तो इसी से
उनका  घर चलेगा और
खुशी इस बात की उनके धानों से
मिलने वाले चावल से
न जाने कितनों का पेट भरेगा।।

Thursday, May 29, 2014

एक प्रेम का दीप जला जाना

जब शाम ढले और रात चले
तुम मन मन्दिर में आ जाना
आकर के तुम उसमें बस
एक प्रेम का दीप जला जाना

जब अम्बर में बिखरे चांदनी
और तारों की बारात सजे
सिर मेरा गोद में रखकर तुम अपनी
मुझे प्रीत की लोरी सुना जाना

जब सुध-बुध अपनी मैं खोऊं
और गहरी नींद में मैं सोऊं
सुंदर रूप सलोना मुखड़ा
तुम ख्वाब में आकर दिखला जाना

सुबह जब सूरज सिर पे चढ़े
और चिड़ियों की चहचहाहट मन में घुले
तुम भीगी जुल्फों के छींटे बरसाकर
मुझे नींद से जगा जाना

एक प्रेम का दीप जला जाना।।

Monday, May 26, 2014

प्रेम प्रणय की बेला

प्रेम प्रणय की इस बेला को
जी भर कर जीना है अब

तुझसे मिलन की उत्कंठा को
अविरल जल सा बहना है अब

गीत भी होगा रीत भी होगी
मीत भी होगा प्रीत भी होगी

हृदय में दबी अभिलाषाओं को
इक चिड़िया सा उड़ना है अब

मां-पापा के दिवा स्वप्न को
पुल्कित होते सबके मन को
स्वस्रेह से सींचना है अब

तुझसे मुझको मुझसे तुझको
पवित्र बंधन में बंधना है अब

प्रेम प्रणय की इस बेला को
जी भर का जीना है अब।।।

Friday, May 23, 2014

मजूदर औरत

न हूं मैं गार्गी और न ही पद्मावती
न मैं कल्पना चावला और न ही इंदिर नुई
न हूं मैं झांसी की रानी और न ही विजयलक्ष्मी
न मैं मैरी कॉम और न ही अरुंधती
मैं हूं एक साधारण सी मजदूर औरत
मेरे पास नहीं है रंगीन सपनों का आकाश
और न ही नित नई उम्मीदों की जमीन
मेरे पास नहीं हैं रुपये अपनी ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए
हां मेरे पास आकाश है तेज धूप से भरा हुआ
और जमीन भी है जिससे मिट्टी खोदकर
मुझे छठी मंजिल तक ले जानी है
मेरे पास रुपये भी हैं लेकिन अपने भूखे बच्चों का पेट भरने के लिए
मुझे नहीं मिली इतनी शिक्षा की मैं सफलता की उड़ान भरूं
लेकिन मेरे पास है मेरी मेहनत जिससे अपने बच्चों में
अपने सपनों को जी सकूं।

Thursday, May 22, 2014

बचपन की यादें

गर्मी की भरी दुपहरी में
जब गांव की गलिया सो जाती थीं
आंधी जैसी लू से डरकर
चिड़ियां पत्तों में छुप जाती थीं
हमें सुलाने की कोशिश में
जब नानी खुद सो जाती थीं
हम धीरे से उठकर तब बाहर आते थे
आम के बाग की ओर तेज दौड़ लगाते थे
कभी डंडा तो कभी पत्थर
कच्चे आमों पर बरसाते थे
हमारी अनगिनत कोशिशों के बाद
जब कुछ आम टूटकर गिर जाते थे
उन्हें देखकर हम खुशी से फूले नहीं समाते थे
नमक-मिर्च लगाकर हम कच्चे आमों को खाते थे
हमें देखकर दूसरों के भी दांत खट्टे हो जाते थे
फिर खाते थे मम्मी की डांट
और दादी के ताने सुनते थे
आंखो में मोटे आंसू देखकर पापा हमें मनाते थे
अक्सर याद आती हैं बचपन की वे बातें
जब लाख डांट पड़ने पर भी हम
गलतियां दोहराते थे।